धर्म

पांगणा के प्रसिद्ध भुट्ठा सौह में संपन्न हुआ “लाहौल” मेला

 

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किसी भी शक्ति की पूजा ईश्वर की पूजा है। समस्त सृष्टि में देवता प्रकृति आत्मा आदि जो कुछ भी है ब्रह्म ही है। विभिन्न देवताओं की प्राकृतिक शक्तियों को ईश्वर का रूप मानकर उनके पूजन का पांगणा में विधान है। इसी लिए यहाँ के निवासी सूर्य, वायु, वरुण, अग्नि, वृक्ष  प्रकृति आदि को देवता के रूप में पूजते हैं। ईश्वर की विभिन्न रूपों और विभिन्न अवसरों पर पारम्परिक पूजा ही पांगणा की समृद्ध संस्कृति का प्राण भी है।

सुकेत संस्कृति साहित्य एवं जन कल्याण मंच पांगणा के अध्यक्ष डाक्टर हिमेन्द्र बाली का कहना है कि सन् 765 में राजा वीर सेन द्वारा सुकेत रियासत की नींव डालने के बाद पांगणा के स्थायी राजधानी बनने के साथ यहाँ के समाज मे नव जीवन का संचार हुआ। राजाश्रय में मेलों, उत्सवों, त्योहारों के आयोजन का लोगों पर गहरा प्रभाव पड़ा और लोगों को नया जीवन मिला। ऐसे ही एक पारंपरिक मेले का आयोजन राजसी काल से आज तक सामुदायिक सहयोग के रूप से हो रहा है। पांगणा के भुट्ठा गांव मे मनाया जाने वाला लाहौल मेला पांगणा की लोक परंपराओं में बहुत ही प्राचीन और ऐतिहासिक है।लाहौला के बलिदान के उपलक्ष्य में मनाए जाने वाले इस धार्मिक मेले में देव थला फरास(चुराग), सुकेत अधिष्ठात्री राज-राजेश्वरी महामाया पांगणा और महामाया छण्डयारा (सुई-कुफरीधार) तीन पंचायतों के देव रथ शामिल होते हैं। यह मेला गांव की कन्याओं द्वारा लाहौल पर्व से जुड़ा है।  कन्या की कन्यायें सुकेत अधिष्ठात्री राज-राजेश्वरी महामाया पांगणा के मंदिर में एक सप्ताह तक सुपारी की भगवान गणेश जी के विग्रह की पूजा करती हैं। हर रोज सूर्योदय से पूर्व गांव के हर घर आगन से फूल चुनकर इस सुपारी पर अर्पित करती हैं। लाहौल विसर्जन से लगभग एक सप्ताह पूर्व शिव-पार्वती की चिकनी मिट्टी की मूर्तियां बनाकर इनके सूखने पर विभिन्न रंगों से इन मूर्तियों का श्रृखार करती है। लाहौल से एक दिन पूर्व विधिवत विवाह का आयोजन होता है। अम्बरनाथ शिवालय से वर पक्ष बारात लेकर आता है। बाजार का एक परिवार वधु के लग्न का आयोजन करता है। इस अवसर पर फरास से लेकर पांगणा तक देव थला जी के देव रथ की शोभा यात्रा का लोग यात्रा मार्ग में खड़े होकर स्वागत कर धूप-दीप, पुष्प, अन्न-धन समर्पित कर देव थला जी का आशीर्वाद श प्राप्त करते हैं। रात भर जागरण का आयोजन होता है। लाहौल के दिन महामाया छण्डयारा का रथ देव धुनों के साथ पांगणा पहुंचता है। दोपहर बाद सबसे पहले देव थला जी के देवरथ की शोभायात्रा महामाया मंदिर पांगणा से मेला स्थल भुट्ठा सौह तक निकलती है। फिर शिकारी देवी की चरणगंगा से निकलने वाली पांगणा खड्ड में स्थित पार्वती कुण्ड तक लाहौला की शोभा यात्रा निकलती है। अंत में दोपहर बाद महामाया पांगणा और महामाया छण्डयारा की शोभायात्रा पार्वती कुण्ड के पृष्ठ भाग मे स्थित पहाड़ी पर पहुँचती है तो “होफरा” (विशेष देवधुन)के बजते हो नाथ जाति का व्यक्ति शिव-पार्वती रूपी लाहौला के फूलों से भरे टोकरे को सिर पर रख पार्वती कुण्ड में डुबकी लगाकर लाहौला का विसर्जन कर देता है।संस्कृति मर्मज्ञ डाक्टर जगदीश शर्मा का कहना है कि शिव-पार्वती की प्रतिमाओं का यह विसर्जन ही लाहौला के बलिदान का प्रतिक है।लाहौला के सम्मान मे पार्वती कुण्ड बाग से कुछ दूरी पर स्थित भुट्ठा सौह में दोपहर बाद से साँयकाल तक लगभग तीन-चार घंटे चलने वाले मेले मे न केवल कन्याओं और बच्चों की अपितु पांगणा, सुंई-कुफरीधार, चुराग,मसोग,कलाशन,बही-सरही पंचायतों के श्रद्धालुओं की भीड़ भी इकट्ठी होती है। लघु टेकड़ी पर स्थित भुट्ठा सौह से शिकारीदेवी से रेशाटाधार तक का सुंदर नजारा श्रद्धालुओ को खूब आकर्षित करता है।मेला मैदान में पांगणा और छण्डयारा की देवियों के देवरथ पहुंचते ही देव थला जी ब्रह्माण्ड की आधाभूत शक्ति माँ जगत् जननी जगदम्बा के सम्मान मे मेल करते है।तत्पश्चात देवलु तीनों देवी-देवताओं के रथों को कंधे पर उठाकर देवनृत्य करते है। नृत्य के पश्चात देवरथो को इनके अपने-अपने थले (चबूतरे) पर विराजमान कर देते हैं। श्रद्धालु तीनों देवालयों की पूजा अर्चना व दानराशि अर्पित कर देव शक्तियों की महिमा का गुणगान करके सुख समृद्धि और ऐश्वर्य की कामना करते है। सूर्यास्त के साथ ही तीनों रथों के अपनी कोटियों मे लौटने के साथ ही मात्र तीन-चार घण्टे तक मनाए जाने वाले इस ऐतिहासिक लाहौल मेले का समापन हो जाता है।

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