आपकी खबर, करसोग।
आश्विन संक्रांति को हिमाचल में सायर का त्यौहार पारम्परिक ढंग से मनाने की परम्परा रही है। जिला मंडी में जहां यह परंपरागत त्यौहार धूम धाम से मनाया गया वहीं मंडी के उपमंडल करसोग में भी सायर उत्सव की धूम रही। दिन की शुरुआत होते ही स्नानादि के बाद श्री गणेश जी के श्री विग्रह के साथ खट्टे फल गलगल के जुड़वां फल, ऋतुफल, अखरोट, अपामार्ग/कुहरी, ककड़ी, मक्की,धान का पौधा, मास का पौधा, अरबी का पौधा, पेठा,चांदी के सिक्के, चार बाबरू और एक भल्ले को पवित्रस्थल पर रखकर पूजा की गई। सुकेत संस्कृति साहित्य और जन-कल्याण मंच पांगणा के अध्यक्ष डाॅक्टर हिमेंद्र बाली हिम का कहना है कि सायर के दिन बड़ों को आशीष देने की परम्परा रही है। सतलुज घाटी के करसोग और पांगणा क्षेत्र में सायर के दिन दैहिक पवित्रता के बाद विषम संख्या मे अखरोट, द्रुवा,धान की बाली व धनराशि रखकर आशीष प्राप्त किया गया। सायर का त्यौहार इष्ट देव व प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त करने का पर्व भी है। इस दिन देवता महीने भर के स्वर्गवास के बाद अपने धाम लौटते हैं। अत: मंदिर में देवता के स्वागत में देवोत्सव आयोजित होता है। यह त्यौहार ऋतु पर्व भी है। बरसात की विभीषिका और डगवान्स की डायनो से सुरक्षित बच निकलने के बाद कुलदेव, ग्राम देव, देवी-देवताओं व देवगणों के प्रति आभार का त्यौहार है। रमेश शास्त्री का कहना है कि सायर के उत्सव पर कुटुम्ब और आस-पड़ोस को बाबरू (बाण्डे)का आदान प्रदान करना और आपस मे मिलकर अखरोट खेलना ग्राम्य जीवन मे सरसता प्रदान करता है। महिलाओं ने अपने मायके जाकर माता-पिता को अखरोट बांटे तथा आशीर्वाद के रूप मे दुर्वा ग्रहण की। इस दुर्वा को धाठु व कान के पीछे लगाया गया। सायर के दिन रक्षा बन्धन को बहन द्वारा पहनाई “राखड़ी” को अखरोट के साथ देव मंदिरो मे चढ़ाया गया। मंदिरो में झाड़ा उत्सव का भी आयोजन किया गया जहां गूर देवता ने श्रद्धालुओ को देववाणी में आशीर्वाद प्रदान किया।