Saturday, July 27, 2024

करसोग में मौजूद है महाभारत काल की गवाह नागनी जान

  • करसोग में मौजूद है महाभारत काल की गवाह नागनी जान

 

आपकी खबर, करसोग

 

सुकेत के दक्षिणी भाग का पर्वतीय क्षेत्र करसोग वैदिक व महाभारत काल की कई परम्पराओं से जुड़ा है। करसोग कस्बे में ममेल नामक स्थान में प्रतिष्ठित ममलेश्वर महादेव की पावन भूमि भार्गव वंश के प्रवर्तक ऋषि भृगु की तप:स्थली व इसी वंश के रेणुका नंदन परशुराम की भी तप:भूमि रही है।

मरणासन्न रावण ने यहीं महाकाल को परशुराम के माध्यम से प्रतिष्ठित किया था। तभी उसके ब्रह्मरंध्र में अटके प्राण मुक्त हुए थे। त्रेतायुग के बाद द्वापर युग में पाण्डव माता कुन्ती के साथ यहीं एक चक्रानगरी में रुके व भीम ने क्षेत्राधिपति बकासुर का वध कर उसके आतंक से क्षेत्र को मुक्त किया। करसोग क्षेत्र में पाण्डव एक लम्बे समय तक रहे और यहां की आर्येत्तर जातियों यक्ष-यक्षिणी व दावनों के आतंक से लोगों को मुक्ति दिलाई। ममेल में रह कर पाण्डवों ने काशी के समकक्ष इक्कासी शिवलिंग स्थापित करने का उद्यम कर इस स्थान को शिव स्थली बनाया।

करसोग के पूर्व में बंथल पंचायत के अंतर्गत रिक्की वार्ड में एक विशालकाय प्रस्तर शिला नाग के आकार में नागणी जान के रूप में स्थित है। यह नाग के आकार की शिला भी महाभारत काल की घटना की साक्षी रही है। इस नागणी जान यानी शिला को दूर से देखा जा सकता है और अपने देहधारी जीव की आकृति के कारण कौतुहल को सहज ही उत्पन्न कर देती है । नागणी जान आज दैवीय विभूति की तरह पूज्य है।

नागणी जान के विषय में लोकमान्यता है कि महाभारत काल में करसोग के क्षेत्र में नरभक्षी नागिन का आतंक था। यह नागिन एक यक्षिणी थी जिसकी एक अन्य बहन मण्डी के सराज क्षेत्र के अंतर्गत जंजैहली में अपने आतंक के लिये कुख्यात थी। ये दोनों बहने इतनी शक्तिशाली थीं कि वे शिकारी शिखर पर स्थित शिकारी देवी को चुनौति देने का सामर्थ्य रखती थी। जब पाण्डव लाक्षागृह की घटना के बाद इस क्षेत्र में आये तो भीम ने दोनों बहनों का वध कर डाला।

वध करने के बाद दोनों यक्षिणियों को देवत्व प्रदान किया। करसोग के बंथल क्षेत्र में आज भी भीमकाय शिला नागिन रूप में विराजमान है। इस यक्षिणी के सिर को भीम ने काट डाला था। आज भी इस नागणी जान के कटे सिर के रूप में प्रस्तर का बड़ा अंश यथावत विशालकाय शिला पर अड़िग टिका हुआ है।

नागणी जान का आकार एक वृहद रूप लिये हुए है जिसकी ऊंचाई लगभग सत्तर फुट व लम्बाई भी लगभग इतनी ही है। जंजैहली में पाण्डव शिला के नाम से बंथल की यक्षिणी की बहन का विग्रह भी कौतुहलपूर्ण है। इस यक्षिणी को “चुटकी जान” के नाम से भी जाना जाता है। इस शिला को एक अंगुली के बल से भी हिलाया जा सकता है।

वैदिक काल में आर्यों के आगमन से पूर्व हिमालयी क्षेत्र में कोल, किरात, यक्ष,नाग व किरात जैसी आर्येत्तर जातियां रहतीं थीं। नाग व यक्ष जल स्रोतों के अधिपति थे।आज भी हिमालयी क्षेत्र में जलप्रपात, बावड़ी व गहरे जल में यक्ष- यक्षिणियों व नाग-नागिनों के वास की परम्परा प्रचलित है। बंथल के रिक्की में स्थित नागणी जान के विषय में शौंठ गांव के जियालाल मैहता का कहना है नागणी जान की पूजा हर संक्रांति में की जाती है।

नागणी जान के नीचे पाण्डुपुत्र भीम का विशाल पांव भी प्रस्तर पर अंकित है जो भीम द्वारा यक्षिणी का वध किये जाने को प्रमाणित करता है। डाॅक्टर हिमेंद्र बाली “हिम” का कहना है कि नागणी जान के नीचे एक सदानीरा बावड़ी भी है। इस बावड़ी का सम्बंध सनारली के सनारटु राणे से है। उसके महल मे भीमकाय भेखल के वृक्ष पर प्रतिदिन उगने वाली सोने की कोपलों से जुड़ा है। डाॅक्टर हिमेंद्र बाली कहते हैं कि सनारली में इस राणा के पास 50-60 हाथ ऊंचा व 4-5 हाथ चौड़ा भेखल झाड़ी का वृक्ष था।

इसी वृक्ष पर प्रतिदिन उगने वाली सोने की कोपलों से राणा सोने की थाली बनवाता था। उस थाली में भोजन कर एक कन्दरा या दरार में उसे फैंक देता था। इस राणा ने माहूंनाग व देव महासु जो ब्राह्मण वेष में कुटिया बनाने के लिये राणा से जमीन मांगने आये उन्हे जेल में डाल दिया था। बारह वर्ष जेल में रहने के बाद एक दिन दोनों देव नहाने के बहाने नागनी जान के पास गये।

दोनों ने देखा कि नागनी जान की बावड़ी से निकलने वाले जल से राणा सनारलु का अलौकिक भेखल का वृक्ष सिंचित हो रहा है। अत: दोनों ने भेखल वृक्ष के लिये होने वाली जलापूर्ति को रोक दिया। अत: जल के अभाव में सोने की कोपलें उगाने वालासभेखल वृक्ष सूख गया। इसी वृक्ष से कालांतर में ममेल व कमक्षा में रखे गये भेखल के विशाल’ ढोल बनाये गये। ये ढोल आज भी इन मंदिरो मे मौजूद है।

संस्कृति मर्मज्ञ डाॅक्टर जगदीश शर्मा का कहना है कि नागणी जान की पूजा पशुधन रक्षा, धन-धान्य वृद्धि व नागों के प्रकोप से बचने के लिये की जाती है। शौंठ निवासी जियालाल मैहता के अनुसार एक बार इस क्षेत्र में सांपों का प्रकोप बढ़ गया। अत: नागणी जान की पूजा-अर्चना से सांपों का प्रकोप थम गया। तभी से नागनी जान की पूजा हर संक्रांति में की जाती है। धान की फसल लगाने से पहले नागणी जान की विशेष पूजा सम्पन्न की जाती है।

नागणी जान की पूजा का दायित्व पारली सेर व खराटलु गांव के लोगों का रहता है। नागनी जान के रूप में प्रतिष्ठित यक्षिणी की मान्यता शिलानाल, बंथल, चमैरा, राड़ीधार, शौंट, रिक्की, खनौरा, लठैहरी, मड़ाहग, बान-क्वान व नहरठी गांव में है। नागनी जान के इस स्थान पर शौंप गांव के देव शंकर तीसरे वर्ष निकलने वाले फेर में यहां रात्रि प्रवास करते हैं महाभारत काल में पाण्डवों के सुकेत के इस क्षेत्र से जुड़ी घटना की साक्षी नागणी जान आज बंथल व आस-पास के क्षेत्र में आस्था के केन्द्र में है।

 

पाण्डवों का करसोग क्षेत्र व सराज के रायगढ़ क्षेत्र से भी सम्बंध रहा है। ऐधन निवासी वीरसेन का कहना है कि वास्तव में नागणी जान (शिला) के प्रति लोक आस्था व इससे जुड़े वैदिक आख्यान यहां के इतिहास व संस्कृति को परिपुष्ट करते है।

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